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कविता

जुआरी

अनिल कुमार पुरोहित


जुआरी एक बना
भेज दिया इस बाजार में।
तेरे ही खेल, तेरे ही नियम,
तेरे ही परिणाम, तेरे ही बाजार।
मैं बस मदमस्त।
सारे माहौल में - बिखेर दिया
नशीला धुआँ।

कहीं खेल हो रहा
कहीं नाच, गाने
तो कहीं तमाशे।
कहीं कहकहे, तो कहीं अट्टहास।
कोई गुमसुम, तो कोई धुत।
सब पर तेरी तीखी नजर।
नशा सा छा रहा, जहाँ में सारे -
ना कोई सोच, ना कोई उम्मीद।

लत एक लगा दी
बस हारने की।
मैं हारता जाता,
तू खेले जाता।
अजीब सा रचा -
खेला तूने।
कहाँ से सीखा, कहाँ से लाया
खेल इतने।
कहीं तू भी तो
कभी ना कहीं
रहा - एक जुआरी तो नहीं।

 


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